धात का इलाज कैसे करें
धात रोग क्या होता है?
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यदि स्पष्ट अर्थ में समझाया जाये तो धात रोग से अभिप्राय है किसी व्यक्ति के मूत्र त्याग के दौरान थोड़ा सा दबाव बनाने पर मूत्र के साथ वीर्य भी स्वतः निकल जाना। वैसे धात गिरने की समस्या को शुक्रमेह रोग भी कहते हैं। लेकिन समझने वाली बात यह है कि आखिर यह रोग(धात रोग, शुक्रमेह) क्यों होता है?
आइस इसे सरल भाषा में समझने की कोशिश करते हैं। जब कोई व्यक्ति कामुक हो जाता है, यानी संभोग की प्रबल इच्छा उसके दिलों-दिमाग पर हावी हो जाती है, तब उसके लिंग में तनाव यानी उत्तेजना आ जाती है। लिंग की इस उत्तेजना के कारण लिंग से हल्का-हल्का लेसनुमा द्रव्य रिसने लगता है। लेकिन इस बहने वाली लेस की मात्रा इतनी थोड़ी होती है, कि ये लिंग से बाहर नहीं आ पाती। परन्तु जब लिंग का यह तनाव और उत्तेजना अधिक समय तक रहती है, तो यह लेस, लिंग के मुख तक पहुंच जाती है, जिसे अंग्रेजी में ‘Prostatic Secretion’ भी कहा जाता है।
यहां बता दें कि लिंग से इस प्रकार बहने वाली लेस में, वीर्य का अंश जरा-सा भी नहीं होता है। दरअसल इस रिसने वाले पतले पानी का काम सिर्फ इतना होता है कि ये लिंग की नाली को गीला रखता है, ताकि जब व्यक्ति सेक्स करे और चरम पर पहुंच कर उसका वीर्य तेजी से निष्कासित हो तो लिंग की नसों को कोई हानि ना पहुंचे।
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आजकल युवा वर्ग में उत्तेजना और कामेच्छा की जिज्ञासा इतनी प्रबल होती है कि अप्राकृतिक रूप से वे अपने वीर्य की बर्बादी करते रहते हैं। कई युवा पुरूष तो अपनी काल्पनिक दुनियां में ही किसी भी सुंदर लड़की अथवा स्त्री के साथ संभोग करने लगते हैं। जिस कारण उनके मन-मस्तिष्क में यह उत्तेजना घर कर जाती है और लिंग लंबे समय तक उत्तेजना में रहता है और यह द्रव्यनुमा लेस अधिक रूप में बहनी शुरू हो जाती है। आगे चलकर तो स्थिति इतनी नाजुक हो जाती है कि किसी लड़की अथवा स्त्री की कल्पना मात्र से ही वीर्यपात होने लगता है।
इस स्थिति को ‘शुक्रमेह’ की श्रेणी में गिना जाता है।
धात रोग के लिए आयुर्वेदिक उपचार-
1. पहला उपाय
योग– मुलहठी 18 ग्राम, काहू के बीज 54 ग्राम, गुलनार 36 ग्राम, सम्भालू के बीज 60 ग्राम।
विधि- उपुर्यक्त सभी औषधियाँ साफ-सुथरी ग्रहण करें और कूट-पीसकर छान लें।
लाभ- यह चूर्ण धात रोग यानी वीर्य प्रमेह की चिकित्सा के लिए बहुत ही गुणकारी औषधि है।
इसका प्रभाव सर्वोत्तम उच्चकोटि का होता है।
सेवन विधि- 6 ग्राम की मात्रा सुबह निराहार जल के साथ सेवन करने का रोगी को निर्देश दें। चिकित्सा 2-3 सप्ताह जारी रखें।
2. दूसरा उपाय
योग–गिलोय 125 ग्राम, गोखरू 125 ग्राम, आमला 125 ग्राम।
विधि- ये तीनों औषधियाँ कूट-पीसकर छान लें।
सेवन विधि- 6 ग्राम चूर्ण, 6 ग्राम घी और 3 ग्राम शहद के साथ प्रातःकाल सेवन करने का निर्देश दें।
यह प्रमेह को पूर्णतः नष्ट कर रोगी के शरीर में बल वीर्य एवं कांति उत्पन्न कर देता है।
3. तीसरा उपाय
योग– हरड़, बहेड़ा, मुलेहठी, शतावर, गिलोय, सफेद मूसली, स्याह मूसली, नागकेसर, बिदारीकंद और आँवला प्रत्येक 25-25 ग्राम।
विधि- सभी औषधियों को कूट-पीसकर छान लें। यह अतिशय लाभदायक सिद्ध योग है।
इसके सेवन से वीर्य प्रमेह समूल नष्ट हो जाता है।
सेवन विधि- 6 ग्राम चूर्ण, 6 ग्राम घी तथा 3 ग्राम शहद के साथ प्रातःकाल सेवन करने का निर्देश दें।
यह वीर्य प्रमेह को नष्ट कर रोगी के शरीर में शक्ति का संचार करने लगता है।
चिकित्सा एक माह या आवश्यकतानुसार समय तक जारी रखें।
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4. चौथा उपाय
योग– कौंच के बीज 10 ग्राम, आक की जड़ 6 ग्राम, खीरे के बीज 10 ग्राम, काहू 10 ग्राम, बीजबंद 10 ग्राम, केसर 10 ग्राम, छिद्रहीन मोती 10 ग्राम, जुदबेदस्तर 6 ग्राम, ऊट कंटारा की जड़ 6 ग्राम।
विधि- उपर्युक्त औषधियाँ प्राप्त कर घोंट-पीसकर एक कर लें। उसके पश्चात् उसमें पान का रस मिलाकर 4 ग्राम दूध के साथ सेवन करने का निर्देश दें।
इस योग के सेवन से वीर्य प्रमेह नष्ट हो जाता है।
सर्दी के दिन के लिए यह अति उपयोगी योग है।
इसके प्रभाव से नपुंसकता का भी नाश हो जाता है।
5. पांचवा उपाय
योग– भाँग के बीज 100 ग्राम, सूखा सिंघाड़ा 10 ग्राम, काहू के बीज 100 ग्राम, खसखस 10 ग्राम, धतूरा के बीज 100 ग्राम, इमली के बीज की मींगी 10 ग्राम, मीठे बादाम की गिरी 30 ग्राम।
विधि- उपर्युक्त सभी औषधियों को कूट-पीसकर सम सर्वत्र कर लें।
जब सभी बारीक पिस जायें, तब उन सभी के वज़न का आधा मिश्री मिलाकर पुनः घोंट कर एक कर लें।
लाभ- यह योग अतीव लाभदायक सिद्ध होता है। इसका प्रभाव वीर्य प्रमेह पर तीव्र गति से होता है और रोगी स्वस्थ, बलवान, कांतिवान हो जाता है।
सेवन विधि- 1-2 ग्राम की मात्रा गाय के दूध के साथ पीड़ित रोगी को प्रतिदिन 1-2 बार सेवन करने का निर्देश दें। यह मात्रा 1-2 सप्ताह तक सेवन करने से ही वीर्य प्रमेह यानी धात रोग समाप्त हो जाता है। वीर्य प्रमेह के अलावा यह नपुंसकता, स्वप्नदोष, वीर्य की कमी, वीर्य के दोषों आदि के लिए भी सर्वोत्तम लाभकारी सिद्ध होता है।
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