सिफिलिस के कारण, लक्षण और घरेलू उपाय  (Syphilis)-

Syphilis Ke Karan Lakshan Aur Gharelu Upay, Syphilis treatment

परिचय-

सुज़ाक की भांति यह भी एक संक्रामक रोग है, जो सहवास(संभोग) द्वारा एक से दूसरे को होता है। इसके अतिरिक्त यदि यह दोष मां में हों तो बच्चा भी इससे ग्रस्त हो जाता है। इससे ग्रस्त रोगी के शरीर में इस्तेमाल की गई सुई यदि दूसरों में प्रयोग की जाये तो वह भी इस रोग का शिकार हो जाता है। यह रोग ‘ट्रेपोनीमा पेल्डिम’ नामक जीवाणु के द्वारा संक्रमित होता है।

Syphilis Ke Karan Lakshan Aur Gharelu Upay

कारण-

परिचय में रोग संक्रमण के मुख्य कारणों के संकेत दे दिये गये हैं, इन्हें स्पष्ट रूप से इस प्रकार समझा जा सकता है-
1. संभोग से संक्रमण रोग का मुख्य कारण।

2. संक्रमित रक्त चढ़ाने से।

3. शरीर में या शरीर पर संक्रमित सुई के इस्तेमाल से।

4. जीवाणुओं का त्वचा या श्लैष्मिक झिल्ली में किसी कटे-फटे घाव द्वारा प्रवेश करने से।

5. गर्भावस्था में गर्भवती के संक्रमित होने से भावी संतान में संक्रमण, ये मुख्य कारण हैं।

लक्षण-

इसका संक्रमण काल 10 दिन से 90 दिन है। इस अवधि के बाद जो लक्षण प्रकट होते हैं उन्हें हम दो भागों(अवस्थाओं) में विभाजित करके अध्ययन कर सकते हैं।

प्राथमिक उपदंश(Primary Syphilis)-

यदि संभोग के समय एक पक्ष इस रोग से ग्रस्त हो, तो दूसरा पक्ष भी संक्रमित हो जाता है। इसके रोगाणु एक से दूसरे में प्रवेश कर जाते हैं। रोगाणुओं के शरीर में प्रवेश स्थल पर घाव हो जाता है, जिसे ‘प्राथमिक उपदंश’ कहते हैं। स्थानीय लसिका(Lymphatic Glands) ग्रंथियां बढ़ जाती हैं। यह घाव दर्दरहित होता है। छूने से इससे रक्त नहीं निकलता एवं देखने में पंच किये हुए से लगते हैं। ये संख्या में 1 से 2 हो सकते हैं। इसे ‘शैंकर’ भी कहते हैं। कठोर ‘शैंकर’ की उपस्थिति प्रजनन अंगों के अतिरिक्त होंठ, जीभ, टाॅन्सिल, अंगुलियों, छाती एवं कमर पर भी हो सकते हैं।

पुरूषों में यह घाव लिंग और महिलाओं में भगोष्ठ(Labia), भंगाकुर(Clitoris) एवं गर्भाशय ग्रीवा पर होते हैं।

द्वितीयक उपदंश(Secondary Syphilis)-

1 से 3 मास के बाद द्वितीयक उपदंश त्वचा या श्लैष्मिक झिल्ली पर दोनों के रूप में उभरते हैं। दाने लक्षणों रहित, एक समान व भुजाओं के बाहरी भाग पर एक लाल रंग के होते हैं। इसमें पानी नहीं होता है। दोनों रगड़ और नमी के कारण गुदा के किनारे, बाजू तथा स्तनों के नीचे मांस गुल्म बन जाते हैं।

तमाम जोड़ों और दोनों ओर की हड्डियों में बिना सूजन के दर्द होता है जो रात को बढ़ जाता है। लिम्फनोड(Lymph Node) बढ़ जाते हैं और बाल झड़ने लगते हैं।

यह अपने आप ठीक हो जाता है। लक्षण बिना चिकित्सा के भी दूर हो जाते हैं, परन्तु रोग रहता ही है।

ऐसा उपदंश जिसमें रोग क लक्षण नहीं होते और सीरोलोजी पोजिटिव हो तो उसे ‘लेटेंट सिफिलिस’ कहते हैं।

अध्ययन एवं परीक्षणों से ज्ञात हुआ है कि 25 प्रतिशत रोगी समय के साथ-साथ(क्रमशः) लक्षणा रहित और सीरोजोली निगेटिव होते हैं। 25 प्रतिशत रोगियों में ‘गमा’ बन जाते हैं। 25 प्रतिशत रोगी जीवन भर शांत पड़ा रहता है। अन्य 25 प्रतिशत रोगियों में 15-20 वर्ष बाद न्यूरोसिफिलिस या कार्डियोसिफिलिस हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप पक्षाघात(Paralysis) मेरूरज्जु अपजनन(Tabes Dorsalis), महाधमनी विस्तार(Aneurysm of Aorta) और महाधमनी प्रतिवाह(Aortic Regurgitation) हो जाता है।

निदान-

1. रोगी का इतिहास एवं वर्तमान लक्षण।

2. सीरोलोजी जांच।

3. जननेन्द्रिय या शरीर पर कहीं भी पीड़ा रहित घाव का होना।

जन्मजात उपदंश(Neonatal Syphilis)-

गर्भाशय में भ्रूण को यह रोग मां के संक्रमित रक्त पहुंचने से होता है। यह अधिकतर गर्भकाल में(गर्भाधान के) 16 सप्ताह बाद होता है। ऐसे समय में गर्भपात, समय से पूर्व प्रसव, बच्चे की अकाल मृत्यु या सिफिलिस से ग्रस्त बच्चा जन्म लेता है। दो वर्ष से अधिक आयु के बच्चों में लाल दाने द्वितीयक सिफिलिस की भांति गुदा, मुंह, हथेली व तलुए पर होते हैं। यकृत व प्लीहा बढ़ी हुई होती है। हड्डी पर भी प्रभाव होता है। दो वर्ष से अधिक आयु के बच्चों में दोष, घोड़े की सीट जैसी नाक, तलुए में छेद, स्नायु में या तंत्रिका में दोष के कारण बहरापन आदि हो जाता है।

इस रोग से बचाव के लिए संभोग के समय कंडोम का इस्तेमाल करें एवं ‘कारण’ अन्तर्गत चर्चित विषयों को ध्यान में रखें।

उपदंश में घरेलू चिकित्सा-

1. चोबचीनी का चूर्ण 3 से 6 ग्राम सुबह-शाम देने से उपदंश में लाभ होता है।

2. उपदंश की द्वितीय अवस्था में जंगली उशबा का चूर्ण 10 से 20 ग्राम सुबह-शाम दें।

3. सार्सापरिता का चूर्ण 1 से 3 ग्राम सुबह-शाम सेवन करने से उपदंश में लाभ होता है।

4. सत्यानाशी(पीला धतूरा) का रस 10 से 15 मि.ली. दूध में मिलाकर नित्य सुबह खाली पेट पीने से लाभ होता है। नियमित कम से कम 40 दिन तक दें।

5. सलई गुग्गल आधा से एक ग्राम सुबह-शाम घृत या मक्खन के साथ सेवन करने से लाभ होता है।

6. पित्तपापड़ा के पांचांग का क्वाथ 25 से 50 मि.ली. नित्य सुबह-शाम सेवन करने से उपदंश एवं इससे उत्पन्न घाव ठीक हो जाते हैं।

7. नीम का तेल 5 से 10 बूंद दूध में मिलाकर नित्य दो बार रोगी को दें। यदि उपदंशजनित घाव हों, तो इस तेल का बाहरी प्रयोग भी करें।

8. फरहद के पत्तों का रस 6 से 12 मि.ली. नित्य सुबह-शाम सेवन करने से उपदंश एवं इसके अन्य उपसर्ग दूर हो जाते हैं।

9. केले का रस 25 से 50 मि.ली. नित्य 3 मात्रायें सेवन करने से लाभ होता है।

10. नीम या त्रिफला के क्वाथ से उपदंश के घाव धोने से लाभ होता है।

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11. भुने हुए चनों के छिल्के अलग करके छिल्के रहित चनों को पीसकर थोहर के दूध में भिगोकर शुष्क करके चने के बराबर गोलियां बना लें। 1 गोली नित्य पानी के साथ रोगी को दें, बहुत आराम होगा।

12. आक की जड़ की छाल 15 ग्राम और काली मिर्च 8 ग्राम गुड़ में मिलाकर ज्वार के दाने के बराबर गोलियां बना लें। 1-1 गोली सुबह-शाम जल के साथ दें।

13. कीकर के पत्ते सुखाकर पीस व छान लें। उपदंश के घावों पर छिड़के लाभ होगा।

14. आक की जड़ का चूर्ण 125 से 250 मि.ग्रा. नीम की छाल के क्वाथ के साथ दिन में 2-3 मात्रायें सेवन करायें।

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